Navadurga Dashamahavidya Rahasya book by Ramesh Chandra Sharma Hindi PDF Free Download

Books detail / बुक्स डिटेल्स
Book Name | Navadurga Dashamahavidya Rahasya book by Ramesh Chandra Sharma Hindi PDF Free Download |
Author Name | P. Ramesh Chandra Sharma |
Category | Tantra mantra and Occult |
Language | Hindi |
Page | 854 |
Quality | HQ |
Size | 220 MB |
Download Status | Available for Download |
मंत्र साधना ।।
मंत्र आपके मन को शुद्ध करता है, आत्मा में नया यत्र का संचार करता है आपके चारों ओर दिव्य प्रकाश का शक्ति पुंज पैदा करता है जो समस्त विघ्नों को एवं पूर्वजन्म के पापों का क्षय कर सर्व प्रकार से अभ्युदय करता है। मंत्र मन को नियंत्रित कर वायु के गमन को उध्वरता करता है एवं चित्त बुद्धि अहं के संयोग से समाधिस्थ होकर परमानन्द की प्राप्त कर अमृत का पान करवाता है।
मंत्र जाप पैश्वरी वाणी में जप करने से सामान्य करत तथा उपांशु जप करने से नाभिमंडलं में गुंजन प्रारंभ हो जाता है। मानसिंक अप करने से हृदयकमल तथा कण्ठ में विशुद्धचक्र जागृत होने लगता है। मंत्र जप में अब पहले से कम समय लगता है। पधात् भ्रूमध्य में ध्यान करते हुये जप करें पंचतत्त्वों के रंग, तारे दिव्याकाप्त का दर्शन इत्यादि अब आपके चिरा को अंतः लोकों की ओर से जाने के लक्षण हैं।
योगनिद्रा में जप करने का अभ्यास इस समय किया जाय तो उत्तम रहें। साम ही’ नाद’ खुलने से कुछ उत्तम अनुभुति होने लगेगी। मंत्र की गति इस समय तेज हो जाती है। साधक इस समय जप करने के स्थान पर मंत्र का श्रोता हो जाता है, यह अवस्था साधना की उत्रति की दर्शाती है।
ध्यान या स्वप्न में मंत्र के स्वर्णाक्षरों में दर्शन या देव दर्शन होना सामान्य शुरुआत है परन्तु योगनिद्रा या प्रगाढ़ ध्यान में विशिष्ट स्वप्न देखकर जाग उठना यह सब कुछ ठीक अवस्था है।
सहस्रार में सहस्रदल का भान प्रारंभ में स्वप्नलोक की तरह निचले केन्द्रों में भी होने लगता है जबकि आत्मतत्त्व की गति अभी वहां नहीं पहुंची है। परन्तु इस क्रिया हेतु सतत् अभ्यास रत रहें।
नीचे के कन्द्रों में विना प्राप्णायाम बंध लगाना। गर्दन का झुककर हंसली पर दवाव पड़ना, जिह्य स्वतः उल्टी का होकर तालु से लगना खेचरी मुद्रा बनना में सय विना प्राणायाम के स्वतः होने लगता है निरंतर अभ्यास की आवश्यकता है।
ध्यान में हूं हूं या गर्जना के शब्द करना, मेंढक की परह फुदकना, गर्दन में कुकुद का भाग ऊंचा होना, सहस्रार में चीटियां चलना, कपाल के १-२ इंच ऊपर तक गायु खिंचाव के लक्षण कुण्डलिनी जागरण के सामान्य लक्षण हैं।
साधक अपने आप को सतत प्रयवशील रखें, पुण्य का क्षय नहीं करे तो उन्नति होकर समाधि का मार्ग खुलकर सहसार में प्रवेश होता है। अजपाजप व निरंतर अभ्यास से समाधि के ये अनुभव कल्पनालोक व स्वप्रलोक की तरह दिवास्वप्र के से अनुभव होकर जाग्रत अवस्था में व चलते फिरते अनायास होते रहते हैं। जिनकी परिणति आगे चलकर सहज समाधि अवस्था में होजाती है। धीरे-धीरे व्यसि परमहंस अवस्था को प्राप्त रकता है।
ध्यान में जव व्यक्ति मंत्र जपकर्ता के स्थान पर श्रोता बनता है तब उसका सूक्ष्य शरीर जाग्रत हो जाता है। पथात् महासूक्ष्म, कारण, महाकारण शरीर का शोधन होकर साधक परमात्मा रूपी आत्मतत्त्व का साक्षात्कार करता है।
साधना सिद्धि कार्य में क्या सामान्य है? शरीर को क्या अवस्थायें होती है? क्या सावधानियां रखें इनका वर्णन पुस्तक के पूर्व भाग सर्वकर्म अनुष्ठान प्रकाशः ‘देवखण्ड’ में किया जा चुका है।
हमारे गुरुजी ने भी सात्विक कर्म योग में तत्पर रहकर वर्षाऋतु में वर्षाकालीन तपस्या, सदी में शरदकालीन वपस्या तथा गर्मी में ग्रीष्मकालीन पंचाग्रि तपस्यायें को, १२-१२ वर्ष चांद्रायण कुच्छ चान्द्रायण व्रत कर जीवन को साधना हेतु समर्पित किया।
समाधिकाल में उनका ब्रह्मकपाल करीव ३ इंच ऊँचा हो जाता था, जिससे शिष्यों में उनके देह विसर्जन का भय वना रहता था। ३-४ महीनों में कपाल वापस कुछ सामान्य अवस्था में आ जाता था।
यदा कदा परिहास में कहते थे आप लोगों को जगह तपस्या हमने कर सी है अब तुमको शेप कार्य धर्म जागृती हेतु तंत्र ग्रन्थों का मर्मसार शाक्त साधकों हेतु प्रकट करना है। संभवतया उन्हीं प्रेरणा शब्दों के योग से अनायास ही लेखन कार्य व संपादन कार्य का योग बना।
मेर अनुभव में यह भी आया है कि अच्छे उपासकों को भी सामान्य अभिचार प्रवृत्ति वाले व्यक्ति पीड़ा पहुंचा देते हैं। संभवतया कारण यह है कि अच्छे उपासकों का चित ऊपर के केन्द्रों में स्थिर रहता है नीचे के केन्द्र खाली रहते हैं, कवच रक्षा प्रयोग वलिप्रयोग का अभाव रहता है। कुछ उनको अनुभव हो भी जाता है तो ये ध्यान नहीं देते।
वशिष्टजी ने रक्षाकर्म एवं प्रतिकार की उपेक्षा की इसी कारण उनके पुत्रों का मरण हुआ।
उदाहरण : माना कि कोई अच्छा उपासक है योगनिद्रावस्था में १० सैकिण्ड में वायु की उध्वंगति बनकर विशेप अवस्था प्राप्त हो जाती है। उस व्यक्ति पर किसी ने अभिचार कर्म कर दिया तो धीरे धीरे साधना हेतु समय कम मिलने लगा, पारिवारिक विपतियां बढी तो मन की एकाग्रता पर भी फर्क पड़ा, ध्यानावस्था न्यून होने लगी फिर भी कारण को नहीं ढूंडा।
कभी कभी भाग्य अनुकूल होता है तो इष्टदेव भी स्वप्रादि में संकेत देते हैं, परन्तु इट द्वारा आपका प्रारब्ध भोग काटने की इच्छा हो तो आपको कोई संकेत नहीं मिलेगा। समय भी उस समय प्रतिकूल रहेगा मन में श्रद्धा य अत्रदा दोनों ही प्रकट होगी।
विषय व रक्षा कारणों पर ध्यान नहीं देने से अभियार कर्म धीरे धीरे प्रचल होने लगा। ध्यान धारणा में भी बाधा आने लगी। योगनिद्रा में ललिता, पांडशी या बगलामुखी का मंत्र भी मनोयोग बनने नहीं देत्ता जहां १० सैकिण्ड में ही वायु उध्वंगमन करती थी अब पत्र करने पर पूरा शरीर कंपायमान होने लगे, शरीर जड़ हो जाये, पीड़ा होवे यह दुष्क्रिया का प्रभाव बना।
इस तरह साधक को अभिचार कर्म की अनुभूति होती है तब तक बहुत विलंब हो गया है। अभिचार निवृत्ति हेतु कर्म करे तो सरीर व चित्त का विशेष उच्चाटन होवे, जिस मंत्र को जपने में १० मिनिट लगते थे उसने ४० मिनिट तक लगने लगे। बगलामुखी मंत्र का प्रभाव विपरीत रूप से स्वयं ही महसूस होने लगा अतः अन्य विद्याओं का सहाय लिया।
वालामालिनी व जातवेद दुर्गा मंत्र से कुछ उन्नति हुई, शयन्नावस्था में वायु कमर के मध्यभाग में आकर रुकने लगी। पश्चात् प्रत्यंगिरा मंत्र के जाप से गातु कंधों के पास आकर रुकने लगी।
प्रत्यंगिरा माला मंत्र के प्रयोग से वायु आगे कपाल की ओर अग्रसर होने लगी पश्चात् छिनमस्ता का प्रयोग काम में लिया गया तो वायु ऊपर के केन्द्रों में गमन करने लनी ध्यान भी ठीक लगने लगा। इस तरह कई तरह के कर्म शुभ-अशुभ दोनों ही है।