कुण्डलिनी सिद्धि प्रकाश नाथ तंत्रेश रणधीर प्रकाशन Kundalini Siddhi by Prakash nath Hindi Book PDF Free Download

Books detail / बुक्स डिटेल्स
Book Name | कुण्डलिनी सिद्धि प्रकाश नाथ तंत्रेश रणधीर प्रकाशन Kundalini Siddhi by Prakash nath Hindi Book PDF Free Download |
Author Name | Prakashnath Tantresh Ranadhir Prakashan, Haridwar |
Category | Spiritual |
Language | Hindi |
Page | 126 |
Quality | HQ |
Size | 35 MB |
Download Status | Available for Download |
कुण्डलिनी जब जाग उठती है
जब कुण्डलिनी जाग उठती है, तो वह षट्चक्रों का भेदन करती है। शिव से मिलने के लिए जाते हुए मार्ग में शरीर के भीतर एक-एक करके सव भूत (तत्व) लय होते हैं, एक-एक भूत लय होने पर कांति बदलती है, साधक को उस स्थान में कैसी-कैसी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं और किस प्रकार जीव ब्रह्म एक होता है- आदि बातों का बहुत ही सुन्दर वर्णन महाराष्ट्र के सर्वश्रेष्ठ नाथ पंथ के कवि योगीराज सन्त श्री ज्ञानेश्वर (ज्ञाननाथ) ने ‘गीता ज्ञानेश्वरी’ के छठे अध्याय में किया है।
इसके अतिरिक्त इसी अध्याय में उन्होंने कुण्डलिनी योग का बहुत विस्तृत तथा उत्तम काव्यमय वर्णन किया है। यह वर्णन करते हुये उन्होंने लिखा है कि हम जिस रहस्य का वर्णन कर रहे हैं, वह गीता में प्रत्यक्ष रूप से नहीं है। यह नाथ पंथ का रहस्य है।
कुण्डलिनी जागरण के विषय में श्री ज्ञान नाथ कहते हैं जब कुण्डलिनी जाग उठती है तब वड़े वेग के साथ झटका देकर ऊपर की ओर अपना मुँह फैलाती है, ऐसा मालूम होता है जैसे वहुत दिनों की भूखी हो और अब जागने के साथ ही अधीर हो उठी हो। अपनी जगह से नहीं हटती, पर शरीर में पृथ्वी और जल दो भाग हैं उन सवको चट कर जाती है। उदाहरण के लिये- हथेलियों और पाँव तलों को शोध कर उनका खत मांसादि खाकर ऊपर के भागों को भेदती है और अंग प्रत्यंग की संघियों को छान डालती है। नखों का सत भी निकाल लेती है। त्वचा को धोकर पोंछ-पाँछकर स्वच्छ करती है और उसे अस्थि पंजर से सटाये रहती है। अस्तु ! पृथ्वी और जल इन दो भूतों को खा चुकने पर वह पूर्णतया तृप्तजन्य समा- धान प्राप्त होने पर उसके मुख से जो गरल निकलता है उसी गरल रूप अमृत को पाकर प्राण वायु जीता है ।
कुण्डलिनी के सुषुम्ना में प्रवेश करने पर ऊपर की ओर जो चन्द्रामृत का सरोवर है वह धीरे-धीरे उलट जाता है और वह चंद्रामृत कुण्डलिनी के मुख में गिरता है। कुण्डलिनी के द्वारा वह रस सर्वांग में भर जाता है और प्राणवायु जहाँ का तहाँ ही स्थिर हो जाता है। तब उस समय शरीर की कांति कैसी दीखती है, इस विषय में श्री ज्ञानेश्वर कहते हैं “शरीर पर त्वचा की सूजी पपड़ी-सी रहती है वह भूसी की तरह निकल जाती है। तब उस शरीर की कांति केसर के रंग की सी अथवा रत्न रूप वीज के कोंपल सी दीखती है।
अथवा ऐसा मालूम होता है जैसे सायंकाल के आकाश के रंग की लाली निकाल कर उससे वह शरीर बनाया गया हो। अथवा आत्म चैतन्य तेज का ही यह लिग वना हो। कनक चम्पक की ही जैसी कला हो या अमृत का पुतला हो, या कोमलता की जैसी बहार आई हो । शारदीय पूर्णिमा की आर्द्रता में जैसे चन्द्रविम्व की शोभा, या कहिये कि मूर्तिमंत तेज ही आसन पर विराजमान हो।
जव कुण्डलिनी चन्द्रामृत पान करती है तब ऐसी देहकांति होती है और तब उस देह से यमराज भी काँपते हैं।” उस साधकः की देह का प्रत्येक अंग नया और कांतिमय बनता है। अंग- प्रत्यंग की उस शोभा का वर्णन भी सन्त ज्ञानेश्वर ने किया है।